चलो मैं भी एक कविता लिखूँ

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आज एक अख़बार के पन्ने पर नज़र पड़ी,
रंगीन तस्वीर के साथ छपी एक खबर पढ़ी|
पंद्रह साल के बच्चे को मिला था खिताब,
उसकी छपी थी इक कविता की किताब|
पढ़ कर आया जोश, खोया होश,
कलम लिए हाथ,
बैठा एक कविता लिखने के इरादे के साथ।
सोचा क्यों न मैं भी एक कविता लिखूँ,
दिल की बात गीतों में कहुँ,
मौका मिले तो सुबह अखबारों में छपूँ।
पर वीर रस की या हास्य रस की लिखूँ,
देश की महंगाई पर, या पेरिस-संघाई पर,
फूलों की क्यारी पर, या राहुल की छोटा भीम से यारी पर।
आखिर क्या लिखूँ?
इतनी ही नहीं, समस्या एक और थी,
समय की नहीं, पर कुछ और थी।
न रस का ज्ञान था,
ना शब्द-अलंकार का संज्ञान था।
अब लिखूँ तो कैसे लिखूँ?
घंटों करता रहा विचारों के आने का इंतज़ार,
बेवजह बैठे रहने के लिए जब माँ से पड़ी फटकार,
तो खुद ही मान ली हार।
माना ये अपने बस की बात नहीं,
अपनी तो राह है और कहीं।
पर अब भी बैठा मैं यही सोचूँ,
कि चलो आज में भी एक कविता लिखूँ।