तब और अब

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इकहत्तर साल हुए,
उस रात को,
जब हम आज़ाद हुए,
अंग्रेज़ों से,उनकी गुलामी से,
अपने पहचान की गुमनामी से |

आज़ाद हुए,
काफी कुछ बदला,
नए लक्ष्य बने,
जैसे अपनी अच्छी जिंदगी और नए पड़ोसी से बदला |


अरमानों के नए फूल खिले,
इक्छाओं की नयी लड़ी बनी ,
तो अपने नए नियम बने ,
अपनी नयी सरकार मिली|

पर क्या सच में..
आज़ादी मिली ?

तब क़ानून उनके थे,
सरकार उनकी थी ,
और थी हमारी बस बेबसी |
तब वो हमारी चीख़ पर बहरे थे,
जख़्म देखकर अंधे थे,
और हमारे हाथ मजबूरी में बंधे थे |

तब खिलाफत से उठे सर कुचल दिए जाते,
हक़ माँगते हाथ मसल दिए जाते ,
और हम हर रात..
बस अच्छे दिन की आस लिये सो जाते |

तब हम गरीब नहीं थे..
बनाये गए थे,
हमें रौशनी होते हुए भी..
अँधेरे दिखाए गए थे,
और हम..
बस सिसकियों के साथ सहते गए थे |

तब औरतें महफूज़ नहीं थी,
जीने से हमको डर लगता था,
हमें बाँटकर हम पर राज करने में,
उनका मन लगता था|

और अब..
अब भी शायद हालत वही हैं,
मजबूरी और बेबसी वहीं हैं
बदले तो सिर्फ "वो ", "उन्हें", "उनके" के मायने हैं ,
और हम आज भी उस गुलामी के आईने हैं |
बदला है तो "वो ", "उन्हें", "उनके" का रंग,
पहले थे गोरे, आज हम में से ही थोड़े

रहेगा इंतज़ार मुझे उस पल का,
असल मायनों में हम आज़ाद होंगे जब,
फ़िलहाल समान हैं दोनों,
तब और अब|